कुछ तकियानुसी लोगो द्वारा
एक भ्रम फैलाया जा रहा है की मोबाईल और वाई-फाई से निकलने वाला रेडियेशन हमारे
शरीर के लिए घातक है| लेकिन विज्ञान के तर्ज पर यह बात 90 प्रतिशत मिथ्या है| 10
प्रतिशत इसलिए निकाला जा रहा है| क्योकि कुछ सावधानियाँ भी आवश्यक है|
मोबाइल, वाई-फाई, ब्लूटूथ,
टेलीविजन, रेडियो इत्यादि में इस्तेमाल होनेवाला वेव क्या है और उससे होनेवाली
रेडियेशन क्या है? आइए देखते है|
उपरोक्त उपकरणों के लिए
रेडियो वेव का इस्तेमाल किया जाता है| जो की हमारे बाप-दादाओ के ज़माने से चला आ
रहा है और इस रेडियो वेव से होने वाली रेडियेशन भी उतनी ही पुरानी है जितना पुराना
रेडियो है|
दरअसल रेडियेशन दो तरह के होते है: आयोनाईज़िंग और नॉन-आयोनाईज़िंग|
एक्स-रे, गामा, आल्फा, बीटा
और ऊँची फ्रिक्वंसी वाले अल्ट्रावायोलेट वेव से आयोनाईज़िंग रेडियेशन पैदा होता है,
जो शरीर के लिए काफी नुक्सानदेय है| लेकिन ये सभी रेडियेशन दुर्लभ होते है|
रेडियो, माइक्रोवेव,
इन्फ्रारेड, द्रश्यप्रकाश और कम फ्रिक्वंसी वाले अल्ट्रावायोलेट वेव से
नॉन-आयोनाईज़िंग रेडियेशन पैदा होता है| यह सभी रेडियेशन हमारे रोजमर्रा के जीवन
मे होते है और अधिकतर प्राकृतिक है।
इन दो वर्गो मे से आयोनाइजींग रेडियेशन ही हमारे जिन्स
मे परिवर्तन की क्षमता रखता है, जिससे कैंसर उत्पन्न हो सकता है। अन्य रेडियेशन कैंसर
उत्पन्न करने की क्षमता नही रखते है।
ध्यान दे कि रेडियो एक्टिव रेडियेशन और रेडियो वेव अलग है। रेडियो एक्टिव रेडियेशन आयोनाइजींग रेडियेशन है जबकि रेडियो वेव से होने वाला रेडियेशन नान-आयोनाइजींग रेडियेशन!
मोबाइल से निकलने वाली रेडीयो वेव हानीकारक नही है।(एक साधारण विद्युत बल्ब भी मोबाइल से ज्यादा
हानिकारक हो सकता है क्योंकि वह दृश्य प्रकाश से ज्यादा फ्रिक्वंसी वाली अल्ट्रावायोलेट वेव उत्सर्जित कर सकता
है।)
इससे पहले मैंने सावधानी की बात कही थी; सावधानी केवल
इतनी रखे की रेडियो वेव का इस्तेमाल करनेवाला कोई भी उपकरण हमारे ह्रदय से आधे फूट
की दूरी पर रखे| क्योंकि हमारे ह्रदय में हमेशा प्राकृतिक तौर पर इलेक्ट्रोमेग्नेटिक
रेडियेशन रहता है, जो ह्रदय की धड़कन को सक्रीय रखता है| इसे आप अस्पताल के ICU में भी देख सकते है| जब डॉक्टर किसी मरीज की जान बचने के लिए उसकी छाती पर ख़ास तरह का शॉक देता है, तब ह्रदय में यही रेडियेशन पैदा होता है| इस रेडियेशन को
मोबाइल का रेडियेशन प्रभावित कर सकता है| अतः ख़ास ध्यान रखे शर्ट की ऊपर की जेब
में मोबाईल न रखे!
एक और मिथक है: 2G, 3G, 4G
में रेडियेशन का खतरा बढ़ता जाता है, जो की सरासर गलत है| दरअसल ये वायरलेस
टेक्नोलॉजी है| जिसमें कम फ्रिक्वंसी में ज्यादा से ज्यादा इन्फॉर्मेशन भेजने की
तरकीब का अविष्कार किया जाता है, ना की फ्रिक्वंसी को बढ़ाना!
एक और मिथक है: जितने
ज्यादा इंटरनेट यूज़र्स, उतना रेडियेशन का खतरा ज्यादा| यह तो सफ़ेद झूठ है| इंटरनेट
से भेजे जाने प्रत्येक डेटासमूह को पहले पेकेट में तब्दील किया जाता है| जिस पर उस
यूज़र के आई-पी एड्रेस और मेक एड्रेस का लेबल लगाया जाता है| उसके बाद उसे सिग्नल
में तब्दील किया जाता है| रास्ते में आनेवाले सभी राउटर्स सिग्नल को फिर से पेकेट
में तब्दील कर के देखते है की इसको कहाँ भेजना है और उसका मेक एड्रेस बदलकर आगे
रवाना कर देते है| सभी यूज़र्स को अलग से पहचानने के लिए आई-पी एड्रेस और मेक
एड्रेस का इस्तेमाल होता है| पोस्टल सर्विस की तरह| इसके लिए सभी यूज़र्स को अलग-अलग फ्रिक्वंसी नहीं देनी
पड़ती|
ऐसा ही मिथक मोबाइल में भी
है| जबकी सच तो यह है की एक मोबाइल कंपनी के सभी ग्राहकों के मोबाइल के वेव को
टावर तक जाने के लिए एक-समान फ्रिक्वंसी होती है और दूसरी अलग एक-समान फ्रिक्वंसी
टावर से मोबाईल तक आने के लिए होती है| उसे मोबाइल नंबर के साथ ही भेजा जाता है,
ताकि ग्राहक को पहचाना जा सके| टावर में जाने के बाद ही उसकी फ्रिक्वंसी बदली जाती
है|
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