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Sunday, October 21, 2012

प्रकृति की पुकार (हिन्दी काव्य)



यह काव्य मैने आज से सात साल पहले जब नौवी कक्षा में लिखा था। पहली बार उसे जुनागढ निवासी श्री जीवनभाई वाघेला ने मोडिफाय किया था, जो खुद भी कविताए लिखते है। बाद में उसको कई बार मैने खुद मोडिफाय किया था। तीन साल के भीतर दो में से चार पंक्तियाँ कर दी थी।
प्रकृति हमें पुकार रही है, सरल जीवन तुम जिओ।
प्रदुषण मत फैलाओ तुम, स्वच्छ हवा में सब जिओ ॥ धृ. ॥

तुम्हारा अस्तित्व नहीं था, तब से मै चली आयी हुँ
मैने तुमको जीवन दिया था, मै तेरी परछाई हुँ।
लेकिन जब तुम बडे हुए तब जनसंख्या को बढाते गये
निरंतर उत्खनन से धरती को कमजोर बनाते गये ॥ १ ॥

जल थल वायु ध्वनि को फिर अंतरिक्ष को भी कलुषित किया
खेती को विषयुक्त बनाया, जीवन जहर बनाकर जीया।
मेरे पर एहसान करो तुम अब मुजको तो जीवन दो तुम
जितने ज्यादा पेड उगाओ, उतनी शुध्ध हवा पाओ तुम ॥ २ ॥

ईस धरती पर रहते है हम अविरत नारे सुनते है हम
अमृतवाणी सुनते है हम, सार सार गहते है हम।
तो अपने ईस स्वर्ण जीवन को प्रकृति में समर्पित कर लो
अपने तन मन धन से सबको नी गति नवजीवन दे दो ॥ ३ ॥

अब तो मै यह देख रहा हुँ पृथ्वी पर यह छाया जंगल
सपना अपना लिख रहा हुँ करते सदैव ही मंगल।
मानव मानव साथ मिले तो हो यह धरती नंदनवन
ईस पथिक का ध्येय सिध्ध हो खिल जाये सबका जीवन ॥ ४॥
यद्यपि मैने यह एक ही कविता लिखी है। अभी एंन्जीनिअरिंग करता हुँ, तो कविताए लिखने का शौक नहीं रहा। सीर्फ ब्लोग पर आर्टिकल्स लिखता हु।

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